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मि॒त्राय॒ पञ्च॑ येमिरे॒ जना॑ अ॒भिष्टि॑शवसे। स दे॒वान्विश्वा॑न्बिभर्ति॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mitrāya pañca yemire janā abhiṣṭiśavase | sa devān viśvān bibharti ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मि॒त्राय। पञ्च॑। ये॒मि॒रे॒। जनाः॑। अ॒भिष्टि॑ऽशवसे। सः। दे॒वान्। विश्वा॑न्। बि॒भ॒र्ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:59» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:4» वर्ग:6» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! ये (पञ्च) पाँच प्राण आदि के सदृश (जनाः) विद्वान् लोग जिस (अभिष्टिशवसे) अपेक्षित बलयुक्त (मित्राय) मित्र के सदृश सबको सुख देनेवाले परमात्मा के लिये (येमिरे) यमादि साधन साधते हैं, (सः) वह (विश्वान्) समस्त (देवान्) सूर्य्य आदिकों को (बिभर्त्ति) धारण तथा पोषण करता है, ऐसा जानो ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रोके गये प्राणवायु इन्द्रियों को रोकते हैं, वैसे ही योगीजन समाधि से परमात्मा को प्राप्त होते हैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या इमे पञ्च प्राणा इव जना यस्मा अभिष्टिशवसे मित्राय येमिरे स विश्वान् देवान् बिभर्त्तीति विजानीत ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मित्राय) सखेव सर्वेषां सुखप्रदाय (पञ्च) प्राणादयः (येमिरे) यच्छन्ति (जनाः) विद्वांसः (अभिष्टिशवसे) अभीष्टबलाय (सः) (देवान्) सूर्य्यादीन् (विश्वान्) सर्वान् (बिभर्त्ति) धरति पुष्णाति ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा निगृहीताः प्राणा इन्द्रियाणि निगृह्णन्ति तथैव योगिनो जना समाधिना परमात्मानं प्राप्नुवन्ति ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा निग्रह केलेला प्राण इंद्रियांना रोखतो तसेच योगी समाधीद्वारे परमेश्वराला प्राप्त करतात. ॥ ८ ॥